Friday 25 November 2011

WAH JHEEL JAHAN SAPNO KI CHHAYA HOTI THI ...


वह झील जहाँ सपनों की छाया होती थी
 


वह झील जहाँ सपनों की छाया होती थी इस शीर्षक कविता सहित 49 भाव-प्रवण कविताओं का संकलन है जिसमें एक युवा कवि-मन की मिश्रित भावनाओं की सहज अभिव्यक्ति हुई है। इस संकलन की प्राय: सभी कविताएं कवि ने 18-25 की आयु-अवधि के बीच लिखी थी। अत: उनमें बुद्धि और तर्क के निरर्थक प्रलाप की जगह भावुकता का सहज संप्रेषण और प्रवाह है। मूल स्वर रोमांटिक, प्रकृतिवादी और सौन्दर्यवादी है किन्तु उसमें मानवतावाद, युवा मन के विद्रोह, दिव्य चेतना के अनुभव और प्रेम की उदात्तता जैसे तत्वों की भी अनुभूति होती है। आधुनिक कविता के छंदहीन, अनुशासनहीन और विकृत मनोविकार से कहीं दूर ...... कविता के नैसर्गिक मधुर लोक में विचरण कराने वाला एक अत्यंत पठनीय काव्य-संकलन।

पृष्ठ संख्या:  88 (A4 साइज)
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वह झील जहाँ सपनों की छाया होती थी
आपके अवलोकन के लिए इस संकलन की कुछ कविताएँ

1
सारे ज़हाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा
डॉ सर मुहम्मद इकबाल से क्षमा-याचना सहित

सारे ज़हाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा

रखवाले 'देहली' के मुँह ढँक के सो रहे हैं,
हाले-मुलक के गम में छुप-छुप के रो रहे हैं
वातानुकूल कक्षों में चल रहा है मन्थन
कुछ काम हो या ना हो, होता है खूब चिन्तन

लफ्ज़ों से ही झलकती ऊँची विचारधारा
सारे ज़हाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा

उद्घाटनों में इनका जीवन तमाम बीता
धन-बल से, बाहु-बल से पिछला चुनाव जीता
हैं काफ़िले में इनके कुछ चोर, कुछ सिपाही
जिस ओर दृष्टि जाती, उस ओर है तबाही

जनपथ से जा रहा है यूँ कारवाँ हमारा
सारे ज़हाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा

बातों के हैं मसीहा, वादों के शेखचिल्ली
जनता का धन उड़ाकर खाते ये चिकन-चिल्ली
ये उनको चोर कहते, वो इनको कहते डाकू
कुर्सी पटक रहे हैं, हाथों में लम्बे चाकू

देखो, तमाशबीनों! संसद बनी अखाड़ा
सारे ज़हाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा

आज़ादी हो गई है बर्फी-मलाई जैसी
इन बूचड़ों के घर में रोती है डेमोक्रैसी
जो सत्य को बला की संगीन से दबातेs
जनतंत्र के पहरुओं को सैन पर नचाते

गुंडा किसी गली का वाहेगुरू हमारा
सारे ज़हाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा

जो सभ्य नागरिक हैं, सहमे हुए खड़े हैं
उनके लिए ही सारे कानून सब कड़े हैं
पर लाठियों के बल पे जो भैंस हाँकते हैं
वे ही सफल हैं, बाकी सब धूल फाँकते हैं

जिस देश में मिनिस्टर पशुओं का खाए चारा
सारे ज़हाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा

अध्यात्म-चेतना की बातें बड़ी-बड़ी हैं
संतों के द्वार लकदक कारें जहाँ खड़ी हैं
औरों से कह रहे हैं, मद-काम-क्रोध छोड़ो
पर अपना मूल मंतर है लाख-लाख जोड़ो

ऐसे विलासियों को दे मीडिया सहारा
सारे ज़हाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा

जो तोप के मुक़ाबिल होते थे पहले ऐसे
अब उनकी मंज़िलें हैं विज्ञापनों के पैसे
जो चटपटी बनाकर ख़बरों में भर मसाले
सिद्धान्तहीन होकर करते हैं पृष्ठ काले

ऐसा तो तेज बढ़ता अख़बार है हमारा
सारे ज़हाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा

इस धर्मभीरु भू पर ईश्वर छला हुआ है
बस मंदिरों के पट में वह भी पला हुआ है
कुछ आरती सुबह की, कुछ शाम के भजन हैं
है धर्म बस इसी में, संसार में लगन है

खूंखार आँख वाले आचार्य ने पुकारा
सारे ज़हाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा

मज़हब यहाँ सिखाता आपस में वैर रखना
मन्दिर पे कुफ्र बकना, मस्ज़िद पे पैर रखना
जिन्दा जला किसी का जीवन तमाम करना
'ज़ेहाद' कहके जीभर बस कत्ले-आम करना

जलता हुआ है दिखता हर आशियाँ हमारा
सारे ज़हाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा

सिरमौर बन गए हैं किरकेट के खिलाड़ी
कूचे में भीख मांगें हैं भास और बिहारी
यहाँ इल्म के सितारे घुट-घुट के मर रहे हैं
पर फिल्म के सितारे फर्राटे भर रहे हैं

ये कैसी उलटबाँसी? ये कैसा है नज़ारा?
सारे ज़हाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा

जिस देश में रचाती थीं नारियाँ स्वयंवर
डर-डर के चल रही हैं अब वे कदम-कदम पर
दिन के प्रकाश में भी होता है जिनपे हमला
इस देश में बनी हैं वे सत्य आज अबला

बस 'एक ही नज़र' से सबने उन्हें निहारा
सारे ज़हाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा

'मेहमान देवता हैं', आए हमें रटाने
लेकिन विदेशियों को लूटो किसी बहाने
निज धूर्तता का उनको सौ-सौ प्रमाण देंगे
हम वो महारथी हैं जी भर उन्हें ठगेंगेs

'वसुधा कुटुम्बकम' का यह स्वांग है हमारा
सारे ज़हाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा

आधे बटेर, आधे तीतर बने हुए हैं
बाहर से सभ्य, वनचर भीतर बने हुए हैं
पश्चिम की सभ्यता का कुछ सार मिल न पाया
इस देश में भी सच्चा संसार मिल न पाया

दलदल भरी जमीं पर बैलून क्यों उतारा?
सारे ज़हाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा

नुक्कड़ पे हर मिलेंगी जहाँ पान की दुकानें
सड़कें बनी हुई हैं जहाँ आम थूकदानें
जहाँ रोमियो-से छोरे फ़ब्ती कसा करे हैं
भोली ज़वानियों के चेहरे डरे-डरे हैं

गुटखों के लुत्फ़ में ही यौवन खिले है सारा
सारे ज़हाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा

अफसर जहाँ हैं ढीले, मदमस्त हैं किरानी
टोंटी खुली हुई है लेकिन नहीं है पानी
सारे विभाग हैं पर क्या काम हो रहा है?
टेबुल पे पैर रखकर आराम हो रहा है!

जनता-जनार्दन को रिश्वत का है सहारा
सारे ज़हाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा

जिस देश की पुलिस में संवेदना नहीं है
भीतर से हैं कसाई, कुछ वेदना नहीं है
जो साँठ-गाँठ करके 'प्रकरण' हटा रहे हैं
पेशी से पहले चोरों को जो 'पटा' रहे हैं

जो तुच्छ मुर्गीचोरों से भर रहे हैं कारा
सारे ज़हाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा

सस्ते मोबाइलों से बाजार पाटते हैं
रोटी के बदले 'इन्टेल' के 'चिप्स' बाँटते हैं
ये कैसे अर्थशास्त्री 'टिप-टॉप' हो रहे है?
जहाँ रोटियों के लाले वहाँ 'पॉप' हो रहे हैं!

क्या आपने गरीबों का दर्द भी विचारा?
सारे ज़हाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा

यह कौन सी प्रगति है, जब 'मूल्य' सड़ रहे हैं?
इस चाकचिक्य में जब इन्सान मर रहे हैं
'तकनीक' क्या है, भैये! मुझको जरा बता दे
यह 'रिंगटोन' गाकर कुछ प्यास तो बुझा दे

साइबर विकास बल पर फूटेगी जल की धारा?
सारे ज़हाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा

बच्चे जहाँ करोड़ों कंकाल बन रहे हैं
फिर भी अयोध्या-मथुरा जंजाल बन रहे हैं
बिजली नहीं है पानी, सड़कें खुदी हुई हैं
जहाँ लीडरों की दोनों ऑंखें मुँदी हुई हैं

दिल तोड़ना है मज़हब, नफ़रत है जिनका नारा
सारे ज़हाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा


2
तारे दीप जलाते हैं

तारे दीप जलाते हैं
नभ के कोने-कोने में
बादल को क्या सुख मिलता
सागर-जलकण ढोने में?

सब जग सोया रहता है,
कौन कलाविद् आँखों में
ओस लिए पागल होता
विश्व-व्यथा पर रोने में?

प्रथम विभा से हर्ष विभोर,
अमित कुसुम खिल जाते हैं,
क्या विनिमय-विश्वास लिए
मधुकर आते जाते हैं?

निश्छलता की शुभ्र हँसी
ऊष:-आनन पर फैला
जब सजतीं हीरक-बूंदें,
जग-कल्मष धुल जाते हैं

नियति नहीं रुकती पथ पर,
सौरभ-स्वप्न जगाती है,
खिलो, खिलाओ सब जग को
यही रागिनी गाती है

स्वयं नहीं रखती, जग को
रस-घट शीतल दान किए,
मधुमय चुम्बन दे अलि को
कलिका कल मुरझाती है

थोड़ा ही आलोक रहे,
पर वे जो दे सकते हैं
देते हैं तारक-मंडल,
सुख से झलमल झँपते हैं

प्रणय-लता सूखे न कहीं,
अपने मन की, जग-मन की
यह चिंतन लेकर बादल
कभी न रुकते-थकते हैं

दिव्य हृदय को सुख मिलता
जग में व्यापक होने में
इसीलिए तारे जलते
नभ के कोने-कोने में

3

शाम का धुंधलका



अंतिम किरण पे चढ़के रवि घाटियों में ढलका

वन-पर्वतों पे छाया लो शाम का धुंधलका



पश्चिम पवन के झोंके हिमताल-जाल छूकर

फिर लुब्ध षोडशी के उन्मुक्त बाल छूकर

देते लुटा भ्रमर को संदेश कमल-दल का

वन-पर्वतों पे छाया लो शाम का धुंधलका



सिहरन सिहर-सिहर कर उस लाल गाल वाली

कश्मीर-कुमारी को फुसला रही है, ''आली!

प्रेमी तुझे बुलाता मधु-स्वप्न के महल का!''

वन-पर्वतों पे छाया लो शाम का धुंधलका



निर्जन अनन्त वन में जो बाँसुरी बजाया

बालक गड़ेरिया भी अब गाँव लौट आया

हिमश्वेत माँ प्रकृति का साक्षात स्नेह छलका

वन-पर्वतों पे छाया लो शाम का धुंधलका


4
ताजमहल

आसमान का फूल बनी है तन-मन की कुरबानी
प्यासे! यहाँ नहीं मिलता है इतना सस्ता पानी

यहाँ नहीं कोई भी ऐसा, दर्द तुम्हारा बाँटे
इतनी चहल-पहल के जग में भीतर हैं सन्नाटे

शाहजहाँ अब कहाँ मिलेंगे, ताजमहल बनवा दें
दिल के भंभाते कमरे में स्नेह-प्रदीप जला दें

मन में बहने वाली सरिता धारा मोड़ चुकी है
मानवता दुख की गलियों में आना छोड़ चुकी है

प्रणय-पौध अब सूख चुका है हर मन के आंगन में
फैलाओ मत हाथ कि काँटे आ जाएँ दामन में

कौन जानता कहाँ खो गई मधुर स्नेह की वाणी
प्यासे! यहाँ नहीं मिलता है इतना सस्ता पानी

दिल का पानी सूख चुका है मतलब के मरुथल में
नहीं बोलती बुलबुल कोई अब निस्तब्ध प्रहर में

झिंगुर की क्रिं क्रिं क्रिं से अब कह दो दिल की आहें
सन्नाटे में भी सोती हैं इस जीवन की राहें

अंधेरी निर्वाक निशा को दिल से आज पुकारो
समझ उसे कृष्णाभिसारिका अपनी बाँह पसारो

वरना अब तो ज्योति स्वार्थ की बाँहों में लेटी है
पगले ही कहते हैं करुणा मानव की बेटी है

यहाँ सभी याचक हैं, प्यासे! यहाँ न कोई दानी
प्यासे! यहाँ नहीं मिलता है इतना सस्ता पानी

कर ले अपने लथपथ दिल से ही दो पल की बातें
किसी तरह यूँ टीस दबाते कट जाएँगी रातें

कभी एकदिन उसी टीस से प्रीति सँवर जाएगी
कभी एकदिन उसी जख्म से गीति उभर आएगी

ताजमहल बन जाएगी जब आग तुम्हारे दिल की
नहीं जरूरत रह जाएगी तुम्हें किसी महफ़िल की

अपने ही भीतर सारी दुनिया का सार मिलेगा
अंगारों की छाती पर भी सुरभित प्यार खिलेगा

आसमान पर लिखी मिलेगी अपनी तुम्हें कहानी
आँसू बन जाएँगे तेरे निर्मल शीतल पानी

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